मन में है तनाव आ गई अनचाही परीक्षा फट गए पुस्तकों के पन्ने जिसमें से प्रश्न आने वाले थे पूरे साल की मौज -मस्ती अब बेगानी लगती है गुरुजनों के कटु वचन का अब अर्थ समझ में आ रहा है |. मैं सोचता हूँ आखिर क्यों ? वे हमें हर कदम पर टोकते थे आखिर क्यों? महफ़िल ज़माने से रोकते थे बीते दिनों की याद चुभन -सी लगती है , कोई हमें आकर रोके -टोके अब ऐसी इच्छा करती है | मैं मृग जैसा मरुस्थल में भटक रहा हूँ ज्ञान -गंगा से तृषा बुझाने को तरस रहा हूँ लेकिन न आज गुरु हैं मेरे पास न ही उनके वचन कैसे परीक्षा में फहराऊं ,अपने परचम यह परीक्षा सिर्फ मेरी परीक्षा नहीं मेरे माता -पिता ,गुरुजनों की है मैं उन्हें कैसे पास कराऊँ यहीं प्रश्न मेरे मन में कचोटता है बार- बार प्रायश्चित की आग में झोकता है | -ऋषि कान्त उपाध्याय |

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