मीडिया की हांडी में आतंक का तड़का
वर्तमान युग सूचना क्रांति का है। इस दौर में सूचना एक उत्पाद है, जिसकी खरीद-फरोक्त की जा सकती है। इसलिए समाचारों का भी अपना एक बाजार है जो आवश्यक्तानुसार अपनी प्राथमिकताएं तय करता है। इस बाजार में खबरों की बोली लग रही है। वाजार की जरूरतों के हिसाब से खबरें चुनी या गढ़ी जा रही हैं। किसी भी सूचना को समाचार मानने से पहले जहां समाचार-बोध (न्यूज़ सेंस) और समाचार-मूल्य (न्यूज वैल्यू) का होना आवश्यक माना जाता था, अब उसकी जगह समाचार के बिकाऊपन (सेलेबिलिटी) ने ले ली है। बाजार के मांग और पूर्ति के नियम ने समाचार और असमाचार के बीच की दूरी भी पाट दी है। खासकर इलैक्टॉनिक मीडिया पर बाजारवाद इस कदर हावी हो गया है कि इसने पत्रकारिता के उच्च मूल्यों और आदर्शों को संकट में डाल दिया है।
सूचना के इस धंधे में मीडिया जी-जान से जुटा है और कुछ भी ‘ब्रेक’ करने के लिए टीवी चैनल चौबीसों घण्टे आमादा हैं। हालांकि टीआरपी की इस अंधी दौड़ में खबरिया चैनल एक ही खबर को सुबह से शाम तक इतना ब्रेक कर देते हैं कि खबर की तो कमर ही तोड़ कर रख दी जाती है। खबरों को इतना अधिक मिर्च-मसाला लगाया जा रहा है कि दर्शक सोचते रह जाते हैं कि खबर आखिर क्या है। लग रहा है कि पूंजीवाद इलैक्ट्रॉनिक मीडिया के माध्यम से भारत में अपने पांव पसारने की कोशिश कर रहा है। मीडिया पर बाजारवाद सिर चढ़कर बोल रहा है और पत्रकारिता ‘मिशन’ से ‘कमीशन’ तक पहुंच गई है। चौबीसों घण्टे चौकन्ना रहने वाले हमारे खबरिया चैनल तो सीधे तौर पर यह साबित करने में जुटे हैं कि ‘वे खबर हर कीमत पर’ देने को आमादा हैं और सबसे पहले, सबसे तेज और सबसे श्रेष्ठ सिर्फ वही हैं। अंग्रेजी की एक मशहूर कहावत है- ‘एवरीथिंग इज़ फेयर इन लव एंड वॉर’, इसी जुमले को आगे बढ़ाते हुए खबरिया चैनल साबित कर रहे हैं- ‘मुहब्बत, जंग और धंधे में सबकुछ जायज है’। इस धंधे में खबर एक उत्पाद (कॉमोडिटी) है, इसलिए उसे एक अच्छी पैकेजिंग के साथ बेचा जाना भी जरुरी है ताकि ज़्यादा से ज़्यादा मुनाफा कमाया जा सके। मुनाफा कमाने की इस होड़ में सामाजिक सरोकारों और देश की सुरक्षा और संप्रभुता को ही दांव पर लगाना पड़े तो भी इन्हें कोई परवाह नहीं।
मुबंई में 26 नवंबर 2008 को हुए आतंकी हमले के दौरान भी टीवी चैनलों ने कुछ ऐसा ही माजरा पेश किया। इस घटना ने भारतीय पत्रकारिता खासकर इलैक्ट्रॉनिक मीडिया की संवेदनहीनता और गैरजिम्मादाराना कार्यप्रणाली की पोल खोलकर रख दी। भले ही 62 घंटों तक चली मुठभेड़ ने टीआरपी के अब तक के सारे रिकॉर्ड ध्वस्त कर दिए और आतंक की इस रिपोर्टिंग से टीवी चैनलों ने खूब मुनाफा कमाया लेकिन इस घटना ने लोगों को अपने दिलों में काफी दिनों से संचित भड़ास को निकालने का मौका भी दे दिया। यही वजह है कि अब इस मुद्दे पर नीतिगत बहस भी शुरू हो चुकी है, जिसे निर्णायक दौर तक पहुंचाया जाना आवश्यक है।
पत्रकारिता के तीन मुख्य कार्य माने जाते हैं- सूचना, शिक्षा और मनोरंजन। इनमें अब केवल व्यावसायिकता में ढला मनोरंजन पक्ष ही हावी दिखाई देता है। ऐसे में जनहित से जुड़ी खबरों के लिए तो समय ही नहीं है। खबरिया चैनल टीआरपी बढ़ाने के चक्कर में नैतिक मूल्यों को ताक पर रखने से भी नहीं चूक रहे। उपभोक्तावाद की इस दौड़ में समाज और सरकार के प्रति अब पहले जैसी प्रतिबद्धता भी नहीं रही। टीवी चैनल टीआरपी की अंधी दौड़ में शामिल होकर अपरिपक्व एवं अस्वस्थ पत्रकारिता को जन्म दे रहे हैं, जो लोकतंत्र एवं मानवता के लिए उपयुक्त नहीं है।
घटनाओं को लाइव तो दिखाया जा रहा है लेकिन उसका सही विश्लेषण और टीका-टिप्पणी करने में चैनल काफी पीछे नजर आते हैं। घटनाओं के कारणों, प्रभावों और अतंर्सवंधों पर अक्सर कोई चर्चा नहीं होती। टीवी चैनलों के कार्यक्रमों की लोकप्रियता मापने वाली संस्था टेलीविज़न ऑडिएंस मैजरमेंट (टैम) की रिपोर्ट के अनुसार आतंकी हमलों के दौरान खबरिया चैनलों की दर्शक संख्या में दोगुना से भी अधिक वृद्धि दर्ज की गई। जाहिर है इस बीच विज्ञापन दरों में भी वृद्धि हुई और खबरिया चैनलों ने खूब मुनाफा कमाया। आतंकी हमले के दौरान कुल दर्शकों में से 22.4 प्रतिशत दर्शक खबरिया चैनल देखते रहे। जबकि मनोरंजन चैनलों की दर्शक संख्या कुल दर्शकों में से 19.5 प्रतिशत और हिंदी चैनलों की 15.1 प्रतिशत तक सीमित हो गई। कुल-मिलाकर खबरिया चैनल अपनी हांडी में आतंक का तड़का लगाकर खूब टीआरपी जुटा रहे हैं। ऐसे में उन्हें यह भी समझ नहीं आ रहा कि वे आतंक के कारोबार में आतंकवादी संगठनों के हाथों की कठपुतली भी बन रहे हैं। खबरों से फैलने वाले आतंक की चिंता शायद किसी को नहीं है, अगर है भी तो इस अंधी दौड़ में उन्हें आंख मूंदना ही बेहतर लग रहा है।
देश में जब भी आतंकी घटनाएं घटीं, खबरिया चैनलों की रिपोर्टिंग का तरीका कमोबेश एक सा रहा। संसद पर 13 दिसंबर 2001 को हुए हमले की भी ऐसी ही रिपोर्टिंग हुई। मार्च 2002 में गुजरात दंगों की रिपोर्टिंग को लेकर भी विवाद हुआ। दिल्ली, मुंबई, जयपुर, अहमदाबाद और हैदराबाद आदि में हुए बम धमाकों के समय भी खबरिया चैनलों ने आतंक फैलाने का ही काम किया। हमारे खबरिया चैनलों ने हमलों से उपजी दहशत को कई गुना बढ़ाने का ही काम किया। जाहिर है ऐसे में मीडिया आतंकवादियों की दुर्भावनाओं को ही प्रसारित करने का काम करता है। ऐसा नहीं कि सारे के सारे चैनल इसी परिपाटी पर चल रहे हों, लेकिन अगर गौर करें तो अधिकतर चैनलों की स्थिति कमोबेश यही है।
टीवी की इस प्रकार की रिपोर्टिंग से आतंकियों को भी मदद मिली, यह भी आतंकी हमलों के दौरान ही जाहिर हो गया था। लाइव प्रसारण ने आतंकियों से लोहा ले रहे सुरक्षा कर्मियों को भी कई बार मुश्किल में डाला। चैनलों ने तो इतना कुछ दिखा दिया कि लग रहा था जैसे वे आतंकियों के लिए कवर फायर का काम कर रहे हों। टीआरपी की दौड़ में सबसे आगे रहने की होड़ में एक टीवी चैनल ने आतंकियों का फोनो तक लाइव दिखा दिया। खबरिया चैनलों पर आतंकियों और अपराधियों को प्लेटफॉर्म मुहैया कराने के आरोप पहले भी लगते रहे हैं।
अब समय आ गया है कि मीडिया को संजीदा होकर आत्ममंथन करना चाहिए। केंद्र सरकार समाचार चैनलों पर अंकुश लगाने के लिए प्रसारण विधेयक लागू करने की तैयारी में है जिसका पहले ही विरोध हो रहा है। सरकार मीडिया पर नजर रखे, एक लोकतांत्रिक राष्ट्र के लिए यह ठीक भी नहीं है। बेहतर यही होगा कि हम अपनी लक्ष्मण रेखा स्वयं खींचें। इस बीच खबर है कि समाचार चैनल अपने लिए गाइडलाइन बनाकर उस पर अमल करने की तैयारी में हैं। उम्मीद है कि वह दिन जल्द आएगा।
सुरेन्द्र पॉल
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- 15 years ago.
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