वैश्वीकरण के दौर में फैल रही है हिन्दी (14 सितम्बर, हिन्दी दिवस पर विशेष)
सूचना-क्रांति के इस दौर में हर क्षण बदलते वैश्विक परिदृश्य के बीच हिन्दी भाषा एक नये जोश के साथ उभर रही है। कुछ वर्ष पहले तक हिन्दी को गँवारों, जाहिलों और कम पढ़े-लिखों की भाषा माना जाता था, लेकिन वैश्वीकरण और बाजारीकरण के इस दौर में यह सोच तेजी से बदल रही है।
कॉरपोरेट जगत मजबूरी में ही सही, हिन्दी को हाथों-हाथ स्वीकार कर रहा है। भारत में उपभोक्ता वस्तुओं के वृहद् बाजार को आज अनदेखा करना असंभव है। विदेशी कंपनियों के लिए भारतीय बाजारों के खुलने के साथ ही कई बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने भारत में पदार्पण किया। मार्केटिंग और व्यापार में भारतीयों से कहीं ज्यादा माहिर इन कंपनियों का यह अनुभव था कि किसी भी देश में वहां की भाषा, संस्कृति और जायका जाने बगैर अपने पाँव जमाना आसान नहीं है। ऐसे में इन कंपनियों ने अपने उत्पादों को भारतीय जरूरतों के हिसाब से ढालकर पेश किया। अपने उत्पादों के विपणन के लिए इन कंपनियों ने हिन्दी भाषा को चुना, क्योंकि यह भाषा सबसे बड़े तारगेट ग्रुप तक पहुंचती है। “ग्रेट इंडियन मिडिल क्लास” से वास्ता रखने वाले इस बाजार में 60 प्रतिशत से अधिक लोग हिन्दी भाषी हैं। ऐसे में यह एक सुकुन देने वाला समाचार है कि हिन्दी भाषा का भारत में ही नहीं, बल्कि समूचे विश्व में विस्तार हो रहा है।
हिन्दी से पर्याय साहित्य की कलिष्ट भाषा से नहीं है, बल्कि आम बोलचाल की भाषा से है, जिसका उपयोग आज का मीडिया खुलकर कर रहा है। ऐसे में हिन्दी के कुछ पैरोकार बदलते सांस्कृतिक परिदृष्य में भाषा के बदलते (बिगड़ते !) स्वरूप के प्रति चिंतित भी दिखाई दे रहे हैं, लेकिन इस बीच यह भी स्पष्ट हो रहा है कि हिन्दी को अंग्रेजी से सीधे तौर पर कोई खतरा नहीं दिखाई देता। आज व्यापार को विस्तार के लिए हिन्दी का दामन थामना पड़ रहा है और हिन्दी व्यापार के साथ आगे बढ़ रही है। मीडिया और विज्ञापनों में हिन्दी का प्रयोग बहुत अधिक बढ़ा है। हालांकि इसका उद्देश्य हिन्दी की सेवा कदापि नहीं है, बल्कि बहुराष्ट्रीय और देशी कंपनियों की नजर हिन्दीभाषी उपभोक्ताओं के एक बड़े बाजार पर है।
पिछले एक हजार वर्षों से अधिक समय से भारत में हिन्दी का व्यापक उपयोग होता रहा है। अपभ्रंश से प्रारंभ हुआ हिन्दी का रचना संसार आज परिपक्वता के चरम पर है। अग्रेजों के भारत आगमन के पूर्व ही हिन्दी ने अपनी जड़ें समूचे भारतीय उपमहाद्वीप में जमा दी थीं। उस समय का भारत आज की ही तरह विश्व व्यापार का एक महत्वपूर्ण भागीदार था। इसलिए इस देश की जनता के साथ कार्य-व्यवहार करने के लिए हिन्दी का समुचित ज्ञान होना आवश्यक था।
भारतीय संविधान में हिन्दी को राजभाषा बनाने का उपबंध 14 सितम्बर 1949 को जोड़ा गया था, इसलिए हर साल 14 सितम्बर को हिन्दी दिवस के रूप में मनाया जाता है। 26 जनवरी 1950 को संविधान के लागू होने के साथ ही संविधान के अनुच्छेद 343 के उपबंध एक के अंतर्गत देवनागरी लिपि में लिखी जाने वाली हिन्दी को भारतीय संघ की राजभाषा का दर्जा दिया गया। हिन्दी को राजभाषा का दर्जा तो दे दिया गया, लेकिन इसी अनुच्छेद के उपबंध तीन में यह प्रावधान किया गया कि राजभाषा हिन्दी के साथ-साथ अग्रेजी को अगले 15 वर्षों तक सहभाषा के रूप में जारी रखने का अधिनियम देश की संसद बना सकती है। बाद में 1967 में तत्कालीन प्रधानमन्त्री इन्दिरा गाँधी ने राजभाषा अधिनियम में संशोधन कर अंग्रेजी को अनिश्चित काल के लिए भारत की सहभाषा बना दिया। यही उपबंध हिन्दी के विकासपथ पर एक बहुत बड़ा रोड़ा साबित हुआ और आज भी केंद्र और कई राज्यों का कामकाज अंग्रेजी में ही चल रहा है। राजनीतिक इच्छाशक्ति के अभाव में और क्षेत्रवाद के कारण हिन्दी को पर्याप्त शासकीय संरक्षण प्राप्त नहीं हो सका। रही-सही कसर देश के अंग्रेजी परस्त नौकरशाहों ने पूरी कर दी, जिन्होंने अंग्रेजी को ही राष्ट्रभाषा की तरह माना।
हिन्दी भाषा अंग्रेजी और चीनी के बाद विश्व में सर्वाधिक प्रसार वाली तीसरी भाषा है। हालांकि विस्तार के दृष्टिकोण से देखें तो अंग्रेजी के बाद हिन्दी सबसे विशाल क्षेत्र में बोली जाने वाली भाषा है। दुनिया के 150 से अधिक विश्विवद्यालयों में हिन्दी भाषा पढ़ाई जाती है। हजारों की संख्या में विदेशी छात्र हिन्दी सीख रहे हैं और भारत के कई शिक्षक भी विदेशों में हिन्दी को विस्तार देने के पुनीत कार्य में जी-जान से जुटे हैं। उम्मीद है कि आने वाले समय में हिन्दी गँवारों, जाहिलों और कम पढ़े-लिखों की भाषा होने के अभिषाप से पूरी तरह से मुक्त हो जाएगी।
सुरेन्द्र पॉल
- Written by
This email address is being protected from spambots. You need JavaScript enabled to view it. . - In category General Reference.
- 15 years ago.
Like it on Facebook, Tweet it or share this article on other bookmarking websites.