झरना :अनजाना पथिक 

 

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मैं हूँ अनजाना पथिक

ढूंढ़ता हूँ अपनी मंजिल को

धैर्य का आलंबन  करके

कल-कल निनाद  करते-करते  ||

 

उठ रही तरंग जो मेरे दिल से

साहस के झंकृत गीतों में

लक्ष्य-भेद  तक रुके  कदम नहीं

शीतातप के सहते -सहते    ||

 

चाहे चट्टानें  अवरोधक  बन

आ खड़ी हो मेरे पथ में

अवरुद्ध नहीं हो सकती धारा

पौरुष  के रहते -रहते ||

 

निर्जन में भी गर्जन  करती

आशा  की ज्योति जलाये

मिलेगी मंजिल एक दिन  मुझको

अविरल  प्रवाह में बहते -बहते ||

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                                        -ऋषि कान्त उपाध्याय

 



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