प्राय दहेज़ प्रथा को केवल भारत तथा कुछ एशियाई देशों की सामाजिक समस्या तथा कुप्रथा समझा जाता है। किन्तु यह वास्तविक इतिहासिक  तथ्यों के विपरीत है।  दहेज़ प्रथा न केवल भारत में बल्कि यूरोप, अमेरिका आदि देशों में भी विभिन रूपों में रहा है या अभी भी है। दहेज के विभिन्न रूप हैं। अधिकतर इसे कन्या पक्ष की तरफ से दिया जाता है। किन्त इसका एक रूप वर पक्ष के और से भी दिया जाना है। इसे वधु मूल्य माना जाता है।  इसका एक रूप वर के द्वारा वधु को दिया जाना भी है। दहेज़ का औचित्य क्या रहा होगा। यहाँ हम इस प्रकार से समझ सकते है। विवाह एक परिवार संस्था को जन्म देता है। जैसे एक व्यापार को चलने के लिए धन की आवश्यकता होती है, परिवार का सञ्चालन करने के लिए भी धन चैहिये।  इस आवश्यकता की पूर्ती करने के लिए दहेज़ प्रथा का प्रारंभ हुआ होगा।  पुरुष प्रधान सामाजिक व्यवस्था में वधु अपने पति के परिवार का अंग होती है तथा आजीवन वर तथा वर पक्ष पर उसका उतरदायित्व होता होता है। दहेज़ एक व्यवस्था है  जिससे वधु पक्ष अपना उत्तरदायित्व निर्वाह करता है। कालांतर में दहेज एक सामाजिक प्रतिष्ठा का प्रतीक हो गया।  

विभिन देशों में दहेज़ की पृष्ठभूमि 

प्राचीन बेबीलोन में यह प्रथा उलखित है। पति की मृत्यु पर दहेज़ की राशी पर पत्नी का अधिकाऱ होता था। पत्नी की मृत्यु होने पर दहेज़ का उत्तराधिकार केवल उसके बच्चों को न की उसके पति/ सौतनों  के बच्चों  को था।  यदि कोई औरत बिना बेटों के मर जाती तो उसका पति अपनी पत्नी के पिता को दहेज़ की राशी वापिस करता किन्तु उसमे से वधु मूल्य घटा देता। 

मेक्सिको में यह प्रथा स्पेन के उपनिवेशवादियों द्वारा लाई गयी स्पेन के कानून में वधु को दहेज़ की राशी पर नियंत्रण का अधिकार है जबकि अन्य यूरोप के देशों में यह राशी वर के नियंत्रण में चली जाती है। पति इस राशि का उपयोग परिवार के सामूहिक हित के लिए कर सकता था किन्तु पत्नी अक्सर इस का उपयोग अपने स्वतंत्र व्यापर अथवा दुकान के लिए करती। यह प्रथा 18 वी शताब्दी तक रही। 

 फ्रांस सरकार ने न्यू फ्रांस क्यूबिक  में  पुरुष सैनिकों और व्यापारियों के विवाह के लिए महिलाओं को दहेज़ देने की स्वीकृति दी। यह दहेज़ राजा की तरफ से दिया जाता था। इसलिए उन महिलाओं को  'राजा की बेटियां' कहा गया। क्यूबिक स्थित क्रिस्चियन मठ (कान्वेंट) नन बनाने को तत्पर लड़कियों के माता पिता से दहेज़ की मांग करते थे उसी प्रकार जैसे विवाह के लिए की जाती है। यह व्यवस्था धार्मिक समूह के  नए सदस्यों पर कैथोलिक चर्च के नियंत्रण के लिए थी। बिना दहेज़ की लड़कियों को कई लोग सहयोग करते थे।  कभी कभी यह राशी कम की जाती थी। 

आधुनिक युग के प्रारंभ के ठीक पहले दहेज़ प्रथा यूरोप में व्याप्त थी। प्राचीन ग्रीस में वधु मूल्य की प्रथा थी। एक पति के पास पत्नी के दहेज़ में कुछ  सम्पति के अधिकार थे। ग्रीस में दहेज़ का रूप वधु मूल्य था। इंग्लैंड में निश्चित किये गए  दहेज़ को न देने पर विवाह संबध का विच्छेद हो सकता था।  दहेज़ एक दंड के रूप में बही व्याप्त था। एक बलात्कारी और अपहरण के दोषी को दहेज़ देना होता था।  धनि व्यक्ति दहेज़ को गरीब महिलाओं को दान के रूप में देखते थे। क्वीन विक्टोरिया के शासन काल में धनि वर्ग दहेज़ को एक समयपूर्व उत्तराधिकार के रूप में देखता था। माता पिता की मृत्यु की स्थिति में केवल वे बेटियां उत्तराधिकार में सम्पति की अधिकारी थी जिनकी शादी में दहेज़ न मिला हो।  ग्रीस में दहेज़ का रूप वधु मूल्य था। इंग्लैंड में निश्चित किये गए  दहेज़ को न देने पर विवाह संबध का विच्छेद हो सकता था।  दहेज़ एक दंड के रूप में बही व्याप्त था। एक बलात्कारी और अपहरण के दोषी को दहेज़ देना होता था।  धनि व्यक्ति दहेज़ को गरीब महिलाओं को दान के रूप में देखते थे। क्वीन विक्टोरिया के शासन काल में धनि वर्ग दहेज़ को एक समयपूर्व उत्तराधिकार के रूप में देखता था। माता पिता की मृत्यु की स्थिति में केवल वे बेटियां उत्तराधिकार में सम्पति की अधिकारी थी जिनकी शादी में दहेज़ न मिला हो।   

भारत में दहेज़ प्रथा विवाह संस्कार का अभिन्न अंग है।  हिन्दू समाज में दहेज़ मूल रूप से नवा दम्पति को अपना दाम्पत्य जीवन सुचारू रूप से सञ्चालन कारने के लिए सहायता थी। हिन्दू विवाह एक नियोजित (अरेंज्ड) विवाह होता है। आम तौर से ऐसे विवाह में वर तथा वधु पक्ष की आर्थिक स्थिति एक सी होती है। इसलिए दहेज़ की राशी तथा सामान आर्थिक स्थिति के अनुकूल होता है। इसके अतरिक्त पुरुष प्रधान समाज में कन्या वर के घर में आती है। इसलिए वर पक्ष के ऊपर कन्या के भरण पोषण का दायित्व आजाता है।  दहेज़ की व्यवस्था यह सुनिश्चित करती है की वधु पक्ष भी अपना दायित्व निभाए।  मुस्लिम समाज में मेहर भी एक प्रकार का दहेज़ है। यह एक प्रकार से वधु के लिए सुरक्षा कवच है।   
भारत में परम्परा से दहेज़ एक हिन्दू प्रथा है। किन्तु अन्य धर्मं अथवा समुदाय भी इस प्रथा से अछूते नहीं रहे। उन पर भी इस प्रथा का प्रभाव देखा जा सकता है। 
दहेज़ प्रथा प्रारंभ में एक निर्दोष रिवाज था। किन्तु कालांतर में इसने एक वीभत्स रूप ले लिया। लालच के वशीभूत कई लोगों ने अपना बेटे की शादी के लिए अनुचित मांग रखनी शुरू की। बेटी का विवाह एक अनिवार्य जरूरत समझी जाती है।  दहेज़ प्रथा ने विवाह संस्था को एक व्यापर का रूप दे दी दिया  दहेज़ प्रणाली का सर्वाधिक विभीष्ट रूप दहेज़ हत्या तथा अत्याचार के रूप में मिलता है। दहेज  के लालच में अंधे लोग विवाह के बाद भी अधिक धन, वस्तु- मोटर कार आदि की मांग करते है तथा उसके लिए दुल्हन (वधु) को परेशां करते हैं तथा हत्या तक हो सजती है। दहेज़ सम्बंथित अपराध की रोकथाम के लिए 'दी 1961 dowry  Prohibition एक्ट लाया गया। दहेज़ की परिभाषा में स्वेच्छा से देने वाले उपहार समिल्लित नहीं होते।  वास्तव में यह वधु तथा वर पक्ष के मध्य का मामला है। यदि वधु को शिकायत हो तो इस कानून का उपयोग तथा दुरूपयोग दोनों हो सकते हैं।  
केवल वर पक्ष का लालच दहेज़ प्रथा की कुरूतियों के लिये जिम्मेदार नहीं है। वधु पक्ष भी अच्छा वर प्राप्त करने के लिए दहेज़ का लालच देता है।  गरीब तथा उपयुक्त गरीब घराने की लड़कियों का विवाह कठिन हो जाता है। 
दहेज़ की परिभाषा में मुस्लिम समुदाय का मेहर नहीं आता। इसके अतरिक्त केवल वही सामान या धन राशी दहेज़ की परिभाषा में आते है जो की विवाह के सम्बन्ध  में दिए जाये। यदि रिश्तेदार या अन्य यह कहें की उनके उपहार विवाह के एवज में नहीं है बल्कि केवल विशुद्ध उपहार है. कानून लचर हो जाता है। केवल काननों के द्वारा इस समस्या से निपटा नहीं जा सकता। 
 इसमें कोई शक नहीं की दहेज़ वर्तमान रूप में एक अभिशाप है।  आम तौर पर दहेज़ राशी तथा उसके अदन प्रदान में दोनों पक्षों के सहमती होती है। इसमें कानून कुछ भी करने में अक्षम होता है। मियां बीबी राजी तो क्या करेगा काजी। आवश्यकता यह है कि शादी पर होने वाले अनावश्यक खर्च, दिखावे आदि पर रोक लगाई जाये तथा सामूहिक विवाहों को प्रोत्साहित किया जाये।  विवाह के रजिस्ट्रेशन को अनिवार्य करने के अतरिक्त केवल सामूहिक विवाह स्थलों के अतरिक्त किसी अन्य स्थान पर विवाह आयोजन प्रातिबंधित हों।  इससे विवाह आयोजन में अपव्यय रुकेगा तथा दहेज़ कानून का भी ज्यादा अच्छा पालन हो सकेगा।                

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